Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


103. दो बटारू : वैशाली की नगरवधू

चम्पा , वैशाली और राजगृह का मार्ग जहां से तीन दिशाओं को जाता है, उस स्थान पर एक अस्थिक नाम का छोटा - सा गांव था । गांव में बस्ती बहुत कम थी , परन्तु राजमार्ग के इस तिराहे पर होने के कारण इस गांव में आने-जाने वाले बटारू सार्थवाह और निगमों की भीड़ - भाड़ बनी ही रहती थी । गांव राजमार्ग से थोड़ा हटकर था परन्तु राजमार्ग पर ठीक उस स्थान पर , जहां से तीन भिन्न दिशाओं के तीन मुख्य मार्ग जाते थे, सेट्टियों और निगमों ने अनेक सार्वजनिक और व्यक्तिगत आवास - अटारी आदि बनवाए थे। एक पान्थागार भी था , जिसका स्वामी एक बूढ़ा व्रात्य था । इन सभी स्थानों पर यात्री बने ही रहते थे।

सूर्य मध्याकाश में चमक रहा था । पान्थागार के बाहर पुष्करिणी के तीर पर एक सघन वृक्ष की छाया में एक ब्राह्मण बटारू सन्ध्या - वन्दन कर रहा था । स्थान निर्जन था । ब्राह्मण प्रौढ़ावस्था का था । उसका वेश ग्रामीण था । वह पान्थागार में भरी हुई यात्रियों की भीड़ से बचकर यहां एकान्त में आकर पूजा कर रहा था । इस बटारू ब्राह्मण का वेश ग्रामीण अवश्य था , परन्तु मुख तेजवान् और दृष्टि बहुत पैनी थी ।

इसी समय एक और बटारू ने उसके निकट आकर थकित भाव से अपने इधर - उधर देखा और वृक्ष की छाया में बैठकर सुस्ताने लगा । ऐसा प्रतीत होता था कि उसका तन -मन दोनों ही थकित हैं । सुस्ताकर उसने वस्त्र उतार पुष्करिणी में स्नान किया और पाथेय निकाल आहर करने बैठा तो उसने ब्राह्मण की ओर देख प्रणाम किया और पूछा

“ कहां के ब्राह्मण हैं भन्ते ? ”

“ मगध के । ”

“ तो भन्ते, मेरे पास पाथेय है- भोजन करिए! ”

“ जैसी तेरी इच्छा गृहपति ! तू कौन है ? ”

“ सेट्ठी। ”

“ कहां का गृहपति ? ”

“ वीतिभय का । ”

“ स्वस्ति गृहपति ! कहकर ब्राह्मण मौन हो गया ।

जिसे ब्राह्मण ने गृहपति कहकर सम्मानित किया था , उसने कुत्तक की गांठ खोल उसमें से एक बड़ा - सा मधुगोलक निकालकर श्रद्धापूर्वक ब्राह्मण के आगे धर दिया । दूसरा मधुगोलक वह वहीं वृक्ष की छाया में बैठकर खाने लगा । ब्राह्मण की ओर उसने पीठ कर ली ।

ब्राह्मण भी भूखा था । नित्यकर्म से वह निवृत्त हो चुका था । उसने भी मधुगोलक को खाना प्रारम्भ किया । परन्तु ज्यों ही उसने मधुगोलक को तोड़ा - उसमें से मुट्ठी- भर तेजस्वी रत्न निकल पड़े । ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो उस बटारू के मलिन वेश और दीन दशा की ओर देखने लगा । आश्चर्य बढ़ता जा रहा था । यदि यह वास्तव में इतना श्रीमन्त है कि इस ब्राह्मण को गुप्त दान देना चाहता है तो फिर इस प्रकार इसका भिक्षुक - वेश क्यों है ?

क्यों पदातिक एकाकी यात्रा कर रहा है ? फिर ऐसे मूल्यवान रत्नों के दाम तो बहुत हैं । ब्राह्मण सोचने लगा , इसमें कोई रहस्य है ।

जब दोनों भोजन कर चुके तब ब्राह्मण ने प्रसन्नदृष्टि से कहा

“ बैठ गृहपति , तेरा नाम क्या है ? ”

बटारू ने निकट बैठते हुए कहा - “ मैं कृतपुण्य हूं, वीतिभय के सेट्ठि धनावह का पुत्र । ”

“ अहा , सेट्टि धनावह ! अरे, वह तो मेरा यजमान था भन्ते ! तेरी जय रहे गृहपति , पर तू एकाकी कहां इस तरह दरिद्र बटारू की भांति यात्रा कर रहा है ? ”

“ मैं चम्पा जा रहा हूं भन्ते ! ”

“ चम्पा ? इस भांति साधन - रहित ? सुनूं तो क्यों ? ”

“ क्या कहूं , आर्य, मैं बड़ी विपन्नावस्था में हूं । ”

“ कह भद्र , मैं तेरा पुरोहित हूं, ब्राह्मण हूं।

“ तो आर्य, दुष्टा माता ने मुझे घर से बहिष्कृत किया है, अब मैं चम्पा जा रहा हूं । वहां मेरी मध्यमा पत्नी का पिता रहता है , वहीं उसके आश्रम में । ”

“ परन्तु इस अवस्था में क्यों ? ”

“ मेरे पास धन नहीं है आर्य! ”

“ पाथेय कहां पाया ? ”

“ माता से छिपाकर मध्यमा ने दिया । ”

ब्राह्मण कुछ-कुछ मर्म समझ गया । वह सन्देह की तीखी आंखों से बटारू को देखता रहा । फिर एकाएक अट्हास करके हंस पड़ा ।

उस हंसने से अप्रतिभ हो बटारू ने कहा -

“ आर्य के इस प्रकार हंसने का क्या कारण है ? ”

“ यही, कि गृहपति , तू भेद को छिपा नहीं सका। ” बटारू ने सूखे कण्ठ से कहा - “ भेद कैसा ? ”

“ तो तू सत्य कह , भद्र , तू कौन है ? ”

“ जो कहा, वह क्या असत्य है ? ”

“ असत्य ही है भद्र ! ”

“ कैसे जाना आर्य ? ”

“ तेरे नक्षत्र देखकर , तू तो सामन्तपुत्र है। ”

ब्राह्मण ने अपनी पैनी दृष्टि से बटारू के वस्त्रों में छिपे खड्ग की नोक की ओर ताकते हुए कहा।

बटारू ने इस दृष्टि पर लक्ष्य नहीं किया । उसने पृथ्वी में गिरकर ब्राह्मण को प्रणाम किया और कहा - “ आप त्रिकालदर्शी ब्राह्मण हैं , मैं सामन्तपुत्र ही हूं - उस दुष्टा सेट्टनी ने मुझे अपनी चार पुत्र - वधुओं में नियुक्त किया था , तथा यथेच्छ शुल्क देने का वचन दिया था । अब पांच संतति उत्पन्न कर मुझे उस मेधका ने छूछे-हाथ खदेड़ दिया । मध्यमा ने मुझे पाथेय दे चम्पा का संकेत किया है, वहां मैं उसकी प्रतीक्षा करूंगा। ”

“ परन्तु तू कौन है आयुष्मन् , अपना वास्तविक परिचय दे, मैं तेरी सब इच्छा पूरी करने में समर्थ हूं। ”

“ तो आर्य, मैं लिच्छवि हूं; और वैशाली से प्रताड़ित हूं। मैंने वैशाली को उच्छेद करने का प्रण किया है। ”

ब्राह्मण चमत्कृत हुआ । उसने उत्सुकता को दबाकर कहा -“ तू लिच्छवि होकर वैशाली पर ऐसा क्रुद्ध क्यों है ? ”

“ आर्य, वैशाली के गणों ने मेरी वाग्दत्ता अम्बपाली को नगरवधू बनाकर मेरे नागरिक अधिकारों का हरण किया है । ”

“ तो आयुष्मन्, तू कृतसंकल्प होकर कैसे नियुक्त हुआ ? और अब फिर तू उसी मोह में है। ”

“ तो आर्य, मैं क्या करूं ? ”

“ तू वैशाली का उच्छेद कर । ”

“ किस प्रकार आर्य ? ”

“ मेरा अनुगत होकर। ”

“ तो मैं आपका अनुगत हूं। ”

“ तो भद्र, यह ले। ”ब्राह्मण ने वस्त्र से निकालकर वे मुट्ठी- भर तेजस्वी रत्न उसके हाथ पर रख दिए।

रत्नों की ज्योति देख बटारू की आंखों में चकाचौंध लग गई। उसने कहा - “ ये रत्न , मैं क्या करूं ? ”

“ इन्हें ले , और यहां से तीन योजन पर पावापुरी हैं वहां जा । वहां मेरा सहपाठी मित्र इन्द्रभूति रहता है, उसे यह मुद्रिका दिखाना, वह तेरी सहायता करेगा। वहां उसकी सहायता से तू रत्नों को बेचकर बहुत - सी विक्रेय सामग्री मोल के दास -दासी - कम्मकर संग्रह कर ठाठ - बाट से एक सार्थवाह के रूप में चम्पा जा और अपने श्वसुर गृहपति का अतिथि कृतपुण्य होकर रह । परन्तु वहां तू मध्यमा की प्रतीक्षा में समय नष्ट न करना ! सब सामग्री बेच, श्वसुर से भी जितना धन उधार लेना सम्भव हो , ले भारी सार्थवाह के रूप में बिक्री करता और माल मोल लेता हुआ बंग, कलिंग, अवन्ती , भोज , आन्ध्र, माहिष्मती , भृगुकच्छ और प्रतिष्ठान की यात्रा कर। यह लेख ले और जहां - जहां जिन -जिनके नाम इसमें अंकित हैं , उन्हें यह मुद्रिका दिखा , उनके सहयोग से वैशाली के अभियान में अपना पूर्व परिचय गुप्त रख ‘ कृतपुण्य सार्थवाह होकर प्रवेश कर । आदेश मैं तुझे वहीं दूंगा । ”

ब्राह्मण की बात सुन और लक्षावधि स्वर्ण- मूल्य के रत्न उसके द्वारा प्राप्त कर उसने समझा कि यह ब्राह्मण अवश्य कोई छद्मवेशी बहुत बड़ा आदमी है। परन्तु वह उससे परिचय पूछने का साहस नहीं कर सका। उसने विनयावनत होकर कहा - “ जैसी आज्ञा , परन्तु आपके दर्शन कैसे होंगे ? ”

“ भद्र , वैशाली के अन्तरायण में नन्दन साहू की हट्ट है, वहीं तू बटारू ब्राह्मण को पूछना । परन्तु इसकी तुझे आवश्यकता नहीं होगी । यहां प्रतिष्ठा - योग्य स्थान लेकर अन्तरायण में निगम - सम्मत होकर हट्ट खोल देना । तेरा वैशाली में आगमन मुझ पर अप्रकट न रहेगा। ”

यह कहकर ब्राह्मण ने उसे एक लिखित भूर्जपत्र दिया और कहा - “ जा पुत्र अपना कार्य सिद्ध कर! ”

बटारू ने अपना मार्ग लिया । ब्राह्मण भी अपना झोला कंधे पर डाल , दण्ड हाथ में ले दूसरी ओर चला ।

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